मसूर की खेती (Lentil Farming)-महत्त्व, जलवायु, खेत की तैयारी, बीज व बीज-उपचार, बुवाई विधि, उर्वरक, सिंचाई, खरपतवार प्रबंधन, कीट-रोग और कटाई-भंडारण

मसूर की खेती प्रोटीन व पोषक तत्वों का महत्वपूर्ण स्रोत है, और भारत में रबी सीज़न की प्रमुख दाल फसल मानी जाती है। इसकी खेती छोटे व मध्यम किसानों के लिए आय का स्थायी साधन है। मसूर पारंपरिक फसल-चक्र में नाइट्रोजन फिक्सेशन के माध्यम से मिट्टी की उर्वरता बढ़ाती है।

मसूर समशीतोष्ण जलवायु में अच्छी तरह उगती है। हल्की दोमट मिट्टी और अच्छी जलनिकासी इसके लिए उपयुक्त हैं। बुवाई सामान्यतः अक्टूबर–नवम्बर में की जाती है। परिपक्वता पर कटाई लगभग 90–120 दिनों में होती है।

वैज्ञानिक पद्धति प्रमाणित बीज, बीज-उपचार, उचित उर्वरक प्रबंधन और समय पर सिंचाई से उपज व दाने की गुणवत्ता दोनों सुधरती हैं। फसल-रोटेशन, खरपतवार नियंत्रण और IPM अपनाने से रोग-कीट का प्रकोप कम होता है। मसूर की बाजार माँग व उपयोगिता अधिक है। इससे किसानों को बेहतर मूल्य मिलता है और उनकी आय बढ़ती रहती है।

इसलिए, किसानों के लिए मसूर की खेती एक लाभदायक विकल्प साबित हो सकता है।

मसूर की खेती सम्पूर्ण जानकारी
  • जलवायु: मसूर समशीतोष्ण-ठंडा मौसम वाली फसल है। रबी के दौरान ठण्डे दिन और ठण्डी रातें तथा मध्यम आर्द्रता अनुकूल रहती है। बुवाई का समय क्षेत्र के अनुसार अलग-अलग होता है पर अधिकांश भारत में अक्टूबर–दिसंबर के बीच बुवाई की जाती है।
  • तापमान: अंकुरण और प्रारंभिक वृद्धि के लिए 10–25°C अनुकूल | फूल व दाना भरने के समय में हल्की शुष्कता लाभदायक हो सकती है।
  • मिट्टी: अच्छी जलनिकासी वाली दोमट या रेतली दोमट मिट्टी (loamy) सबसे उपयुक्त है। गहरे कीचड़/जलजमाव वाली भूमि में जड़-सडन व फफूंदियाँ बढ़ सकती हैं, ऐसे स्थानों में मसूर की खेती से बचें या जल निकासी का सुविधा करें |
  • मिट्टी-परीक्षण: बुवाई से पहले मिट्टी का परीक्षण कर लें | NPK और सूक्ष्म पोषक तथा pH का आकलन करें। इससे उर्वरक की सटीक खुराक मिलती है।
  • जुताई: 2-3 बार हल्की जुताई या एक बार गहरी जुताई करके बुआई से पहले खेत को समतल, गूलर-मुक्त और रौंढा (fine tilth) बनाएं। इससे बीज-सोख व जड़-विकास बेहतर होता है।
  • अवशेष का निपटान: पिछले फसल अवशेष, खरपतवार व संक्रमित अवशेष हटाएँ | रोगजनकों का स्रोत घटेगा।
  • जैविक खाद: खेत में गोबर खाद या कंपोस्ट 5–10 टन/हेक्टेयर दे कर मिट्टी की संरचना सुधारी जा सकती है। दिशा-निर्देशों के अनुसार खेत की तैयारी करें।
  • बीज चयन: प्रमाणित (certified) और क्षेत्रीय रूप से परखी हुई किस्मों का उपयोग करें — उच्च अंकुरण (>85%), रोग-मुक्त व सही आकार के बीज लें। किस्म का चुनाव स्थानीय जलवायु, मार्केट डिमांड (लाल/हरा/छोटा दाना) और रोग-प्रवणता के आधार पर करें।
  • बीज दर: बीज दर किस्म व दाने के आकार पर निर्भर करती है — सामान्य दिशानिर्देश: छोटे दाने वाली किस्मों के लिए 40–45 kg/ha, मोटे दाने के लिए 45–60 kg/ha, देर से बोवाई पर 50–60 kg/ha या उतेरा के लिए अधिक। इन आंकड़ों का उपयोग स्थानीय सलाह के अनुरूप समायोजित करें।
  • बीज-उपचार (Seed treatment): बीजों को फंगल और कीट रोधी दवाओं से उपचारित करना आवश्यक है — सामान्य रूप से थायोफेनेट/थिरम/कैप्टन जैसे फंगीसाइड 2–3 g/kg बीज का उपयोग किया जाता है। साथ ही बीजों पर बैक्टीरिया/वायरस से सुरक्षा हेतु जीवाणु उपचार या ट्राइकोडर्मा का प्रयोग भी किया जा सकता है। बीज-उपचार से अंकुरण, प्राथमिक जड़-विकास और रोग-रोधक क्षमता बढ़ती है।
  • पंक्ति (Line) बोवाई: ड्रिल या रेखाबोवाई अधिक अनुशंसित है | पंक्ति दूरी 20–30 cm और पौधे के बीच 6–10 cm रखें (क्षेत्र अनुसार समायोजित)। रेखाबुवाई से निराई-खरपतवार नियंत्रण व सिंचाई-प्रबंधन आसान होता है।
  • ब्रॉडकास्ट(छिटकवा): पारंपरिक क्षेत्र में उपयोगी पर बीज दर थोड़ी अधिक रखें और बाद में समुचित समतलीकरण/निराई आवश्यक है।
  • गहराई: बीज 2–4 cm की गहराई पर बोएँ | बहुत गहरा बोने पर अंकुरण धीमा और कम होगा।
  • बुवाई-समय: क्षेत्र अनुसार अक्टूबर–दिसंबर | देर से बुवाई से उपज पर नकारात्मक प्रभाव और फसल कम समय में पकती है।
  • सामान्य सलाह: मसूर सामान्यतः नाइट्रोजन की कम आवश्यकता रखने वाली फसल है क्यूंकि यह राइजोबियम-नाइट्रोजन-फिक्सेशन करती है | परन्तु फॉस्फोरस (P) और पोटेशियम (K) व सल्फर (S) महत्वपूर्ण हैं। 15–20 kg N/ha और 50–60 kg P2O5/ha व K आवश्यकता के अनुसार दी जा सकती है |
  • सल्फर का महत्व: सल्फर की कमी से दाल की गुणवत्ता व प्रोटीन/तेल पर असर पड़ता है | इसलिए आवश्यकता अनुसार सल्फर युक्त उर्वरक दिये जाने चाहिए।
  • जैविक उर्वरक व राइजोबियम: बीज को राइजोबियम कल्चर से बीज उपचार करके बुवाई से पहले लगाने पर नाइट्रोजन-फिक्सेशन बेहतर होता है और अधिक प्राकृतिक पोषण मिलता है। जैविक खाद का उपयोग मिट्टी संरचना सुधारता है।
  • आवश्यकता: मसूर सामान्यतः सूखा-सहिष्णु है, पर अंकुरण, फूल और दाना भरने के समय पर्याप्त नमी आवश्यक है। बुवाई के बाद पहली सिंचाई तब दें जब सतह बहुत सूख जाए | फूल-विकास एवं दाना भरने से पहले एक-दो सिंचाइयाँ आवश्यक हो सकती हैं।
  • नियंत्रण: जलजमाव से बचें | अगर खेत में पानी ठहरा रहेगा तो जड़-सडन के रोग बढ़ते हैं। ड्रिप/स्प्रिंकलर उपयुक्त हैं पर छोटी हद तक रिचार्ज व सिंचाई भी चलती है। क्षेत्रीय जल स्रोत व वर्षा के आधार पर सिंचाई योजनाबद्ध रखें।
  • प्रारम्भिक नियंत्रण: शुरुआती 30–40 दिनों में खरपतवार का नियंत्रण महत्वपूर्ण है — हाथ से निकालना, हल्की निराई या क्रॉप शेड्यूल अनुसार हेरबिसाइड। रेखाबुवाई में पंक्ति-नियंत्रण से निराई आसान।
  • रासायनिक नियंत्रण: क्षेत्रीय अनुशंसित हर्बिसाइ드를 खेत की अवस्था व खरपतवार के प्रकार के अनुसार प्रयोग करें — रसायन प्रयोग से पहले स्थानीय कृषि विभाग की सलाह ज़रूर लें।
  • सांस्कृतिक उपाय: समय पर बुवाई, उचित पंक्ति दूरी और स्वस्थ बीज लगाने से खरपतवार कम होते हैं। मल्चिंग/कवर क्रॉप भी लाभकारी हो सकते हैं।
  1. अफिड (Aphids) – छोटे, नरम शरीर वाले कीड़े जो पौधे के रस चूसते हैं | पत्तियाँ मुड़ने लगती है , फूल झड़ सकते हैं और वायरस का प्रसार होता है।
    • पहचान: पौधे के नवीने भाग पर सफ़ेद-भूरे धब्बे दिखाई देंगे।
    • नियंत्रण: प्राकृतिक शत्रुओं (लेडीबर्ड, पारसिटिक वास) को बचाएँ; जरूरत पर नीम आधारित या सतह-स्प्रे/सिस्टेमिक इनसेक्टिसाइड (स्थानीय सुझाव के अनुसार) प्रयोग करें।
  2. कटवार्म/कॉटन बॉल वर्म (Cutworms / Pod borer) – अंकुरण/पौधे के तने काटना व फल/पॉड में छेद कर देना।
    • नियंत्रण: बीज-उपचार, फसल-रोटेशन, प्रभावित भागों का नष्टिकरण, एवं आवश्यकतानुसार रासायनिक नियंत्रण।
  3. बीटल व अन्य पत्तेखोर कीट — पत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं | चोट अधिक होने पर फसल कमजोर होती है।
    • नियंत्रण: खेत निरीक्षण और IPM-जैविक तथा रासायनिक नियंत्रण का संतुलन।
  1. Ascochyta blight (अशोकिथा ब्लाइट) – पत्तियों, शाखाओं व पॉड पर भूरे-नियंत्रित धब्बे बनते हैं | भारी संक्रमण फसल बर्बाद कर सकता है।
    • पहचान: पत्तियों पर गोल धब्बे, फिर शाखाओं पर फैलाव, नमी वाले मौसम में तीव्र।
    • नियंत्रण: रोगमुक्त बीज, फसल-रोटेशन, अवशेष नष्टिकरण और संवेदनशील चरणों पर फंजिसाइड स्प्रे (स्थानीय अनुशंसित)।
  2. फ्यूज़ेरियम/रूट रोट व ब्लाइट (Fusarium/root rot, Stemphylium, Botrytis/Grey mold) – मिट्टी-जनित व वातानुकूलन पर निर्भर रोग।
    • पहचान: पौधे धीमे बढ़ते हैं, पत्तियाँ पीली व सूखी, जड़ सड़ा हुआ दिख सकता है।
    • नियंत्रण: जलनिकासी, बीज-उपचार, रोटेशन, राइजोबियम व जैविक नियंत्रक का प्रयोग उपयोगी होता है।

महत्वपूर्ण: कीट-रोगों के लिए नियमित निगरानी और IPM रणनीति (नीम, जैविक कंट्रोल, प्रतिरोधी किस्म, समय पर फंजिसाइड/इनसेक्टिसाइड) अपनाएँ | बार-बार एक ही वर्ग की रसायन का प्रयोग प्रतिरोध बढ़ा सकता है।

  • कटाई-समय: मसूर के लिए उपयुक्त कटाई तब है जब पौधे के अधिकांश पत्ते झड़ने लगें और दाने का नमी स्तर लगभग 16–18% के आसपास हो | थ्रेशिंग के बाद इन्हें सुखाकर सुरक्षा हेतु नमी घटाकर 12–14% पर लाया जाता है। कुछ क्षेत्रों में 16–18% पर थ्रेशिंग करने की सलाह दी जाती है ताकि दानों की चिपिंग और नष्टि कम रहे।
  • कटाई की विधि: हाथ से या मशीन द्वारा; थ्रेशिंग के लिए उचित नमी पर ही करें | बहुत सूखा दाना तोड़ने पर बीज टूट सकते हैं। खेत में कटाई के बाद गट्ठर/बंच बनाकर जल्द सुखाना चाहिए।
  • नमी व तापमान नियंत्रण: लंबी अवधि के भंडारण के लिये दानों की नमी नियंत्रित करें — आम तौर पर 12–14% नमी सुरक्षित मानी जाती है, कुछ किस्मों और बाज़ार की आवश्यकता अनुसार 10–13% भी बेहतर है। स्टोरेज तापमान ठंडा रखें और कीट-नियंत्रण हेतु गोदाम की सफाई व चूना/फ्यूमिगेशन का प्रबंध रखें।
  • सफाई व पैकेजिंग: भण्डारण से पहले छान-छन कर पत्थर, मिट्टी और कचरा हटाएँ; एयर-टाइट बैग/सिलोंग गोदाम बेहतर होते हैं।
  • कीट नियंत्रण: गोदाम साफ रखें, नियमित जाँच करें; भारी कीट हो तो स्थानीय प्रोटोकॉल के अनुसार फ्यूमिगेशन या वैकल्पिक नियंत्रण अपनाएँ।

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